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💠✨ सनातन रहस्य ✨ 💠
टेलीग्राम शैली में सनातन भगवान, योगी, महान विचारक और किंवदंतियों, सृजन, विज्ञान और उद्धरणों का आनंद लें! तंत्र, यंत्र, मंत्र, औषधि और लगभग हर सनातन सामग्री। प्रेरणा का विस्फोट! 🔥🔥
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ॐ महामंत्र
एक बार कैलास पर स्थित शिवजी ने मात पार्वती के प्रश्नों का उत्तर इस प्रकार देते हैं- हे देवी! जो तुम मुझसे पूछ रही हो, उसे मैं कहता हूँ। उसके सुनने मात्र से जीव साक्षात् शिव हो जाता है। प्रणव के अर्थ का वास्तविक ज्ञान ही मेरा ज्ञान है। वही मन्त्र सभी विद्याओं का बीज (मूल कारण) है। वह वट बीज की भाँति अतिसूक्ष्म है और महत्त्वपूर्ण अर्थ वाला है। वही वेदों का आदि है। वहीं वेदों का सार है तथा वही विशेषकर मेरा स्वरूप है।
मैं तीनों गुणों से परे रहने वाला सर्वज्ञ, सर्वकृत प्रभु हूँ। सर्वत्र गमन करने वाला होने पर भी ॐ इस एक अक्षर वाले मन्त्र में स्थित शिव हूँ। यह जो कुछ वस्तु है, वह सब गुण मेरे और प्रधान के संयोग से समष्टि (संक्षेप), व्यष्टि (विराट्) रूप से प्रणव का अर्थ ही है। इसलिये वह एक अक्षर ब्रह्म ही सभी अर्थों का साधक है।
इसलिये शिवजी ॐ से ही सम्पूर्ण संसार की रचना करते हैं। शिव या प्रणव, या शिव एक ही हैं; क्योंकि वाच्य और वाचक में कुछ भेद नहीं होता है। इसलिये मुझे ब्रह्मर्षि एकाक्षर देव कहते हैं, क्योंकि विद्वान् वाच्च्य-वाचक में एकता स्वीकार करते हैं। इसलिये प्रणव को ही सबका कारण जानों। मुमुक्षु (मोक्ष को चाहने वाले योगी) मुझे निर्विकारी, निर्गुण, परमेश्वर समझते हैं।
हे देवेशी! सभी मन्त्रों में श्रेष्ठ इस प्रणव को काशी में प्राणियों को मुक्ति देने सदाशिव उपासना के लिये सुनता हूँ। हे अम्बिका ! अब मैं पहले प्रणवोद्धार का वर्णन करता हूँ। जिसको जानने से परम सिद्धि प्राप्त होती है।
पहले अकार के आश्रित निवृत कला का उद्धार करे। उकार में इन्धन कला का, मकार में काल कला का, नाद में दण्ड और बिन्दु में ईश्वर कला का उद्धार करे।
इस प्रकार पाँच वर्ण रूप प्रणव का उद्धार होता है। यह तीन मात्रा तथा बिन्दु नादात्मा जपने वाले को मुक्ति प्रदान करता है। ब्रह्मा से लेकर स्थावर पर्यन्त सभी प्राणियों का यह प्राण है। अतएव इसे प्रणव कहते हैं। इसका आदिवर्ण अकार है, उकार, अन्त में मकार तथा नाद है। इसके संयोग से ॐ बनता है।
हे मुनिवर ! यह जल की भाँति दक्षिण-उत्तर में स्थित है। मध्य में मकार है,. इस प्रकार ॐकार की स्थिति है। अकार, उकार, मकार- एक क्रम से तीन मात्रा है। उसके बाद आधी मात्रा और है।
हे महेशानी ! यह आधी मात्रा बिन्दु नाद स्वरूप वाली है। इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। इसे ज्ञानी लोग जानते हैं। हे प्रिया! 'ईशानः सर्वविद्यानाम्' इस प्रकार वेद ने कहा है। ये वेद मुझसे उत्पन्न होते हैं, यह 'वेदों ने सत्य कहा है।
इसलिये मैं वेदों का आदि हूँ और प्रणव मेरा वाचक है। मेरा वाचक होने के कारण यह प्रणव भी वेदों का आदि कहा गया है। अकार इसका महान् बीज है। इसी के रजोगुण से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति होती है।
उकार इसकी प्रकृति (योनि) है। सत्वगुण वाले हरि (विष्णु) पालयिता है। मकार पुरुष बीज है, तमोगुण युक्त हर (शिवजी) इसके संहारक हैं। इस प्रकार बिन्दु साक्षात् महेश्वर देव हैं, जो तीरोभाव के कर्ता कहे गये हैं। नाद सदाशिव कहे गये हैं, जो सब पर दया करते हैं। नादरूप पर से भी परशिव का ध्यान मस्तिष्क में करना चाहिए।
वे ही सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, सर्वेश, निर्मल, अव्यय (अविनाशी), अनिदृश्य, परब्रह्म तथा सत्-असत् से परे हैं। अकार आदि सभी स्वरों तथा व्यञ्जनों में क्रम से उत्तरोत्तर अधिक व्याप्त है। ऊपर से निचला वर्ण अधिक व्याप्य है। ऐसा सर्वत्र विचार करे।
#guru #shiv #ravan #samhita
@sanatanarahasya
474
17:01
08.08.2025
गुरु पदाम्बुज कल्प सिद्धि
गुरु और सिष्य की धड़कने जुदा जुदा नहीं होती ,सिष्य के रोम रोम मे गुरु की चवी समाहित रहती है ,आँखों में गुरु का तेजस्वी स्वरुप नाचता है, हर पल हर क्षण, बैटते शोत -जगाते सिष्य गुरु में ही खोया रहता है ,उसका संसार गुरुमे होजाता है ,उसकी हर क्रिया गुरु को अर्पित होती है,अपना स्वयं का अस्थित्व गलती हुयी बर्फ सा गलता जथा है ,और एक क्षण जीवन मे वह अता है की समस्त क्रियावों के प्रति उसका कर्थाभाव सदा सदा के लिए तिरोहित हो जाते है ,वह गुरु की परछाई सा बन गुरुतुल्य हो जता है ,और यही क्षण होता है की गुरु अपने सिष्य को दोनों बहोम में समेट सीने से लगा कर सब कुछ समाहित कर देता है अपने सिष्य में ,गुरु पाद सेवा और गुरु युगल चरण सिष्य की घोरोहर बनकर साकार हो उठती है,ज्ञान के विरत पुंज मे भोध के उनमुक्त वतायानी क्षणों में ,जहा व्यापकता की व्यापकता है ,सत चित आनंद का मधुर मिलन सिष्य का व्यापक जीवन बंजथा है और इसीलिए सिष्य गुरु को प्राणाधार मानते हए अनयास स्वीकार कर लेता है .
कल्प प्रयोग विधि
किसी भी गुरुवार को प्रातः ४ बजे ब्रह्म मुहुरत में स्नान आदि नित्य क्रियावोम से निवृत होकर सुद्ध स्वेत वास्त्र पहन कर सफ़ेद असन पर उत्त्र दिसा की ओर मुह कर बेटो फिर मन की वाणी एवं ह्रदय को पवित्र करने केलिए ॐ प्रणव बीज का तीन बार प्राणायाम संपन्न करते हुए अपने सामने मंत्र सिद्ध प्राण प्रतिष्ट युक्त गुरु चरण पादुका किसी पत्र मे स्वस्तिक बनाकर उस पर स्थापित करे ,सात ही गुरु यन्त्र और गुरु चित्र भी सामने रखे और फिर कुमकुम ,अक्षत ,पुष्प, नै वेद्य एवं अगरबत्ती अदि से पूजन आरती संपन्न करे इसके बाद शुद्द घी की ज्योति अपने सामने लगाये ,सुद्ध दूध गंगाजल चरनोम मे अर्पित करते हुए गुरु चिन्तन और गुरु चरणों मे ध्यान करे !
पद्मासन आ सिद्दासन में बैट कर अपने सरीर के रोम रोम में गुरु को समाहित करते हुए उनकी उपस्तिति का अहसास करे, मूलाधार से लेकर सहस्रार तक सभी चक्रों मे गुरु के ही बिम्ब का ध्यान करे ,ज्ञान मुद्रा या तत्व मुद्रा में 5 मिनट शांत चित बीत कर अपने आपको गुरुमय बना ले ओर फिर नीचे लिखे मंत्र का स्फटिक माला से नित्य 1 1 माला जप 2 1 दिन तक करे ,तो यह गुरु पदाम्बुज कल्प सिद्धि होता है ,जिसका फल साधक को जीवन भर स्वत मिलता रहता है !!!
गुरु मंत्र
ॐ परम तत्वाय नारायणाय गुरुभ्यो नम :
#anurag #ji #guru #narayan #dutt #shrimali #nikhil #tejasvi
@sanatanarahasya
419
12:38
10.08.2025
आप सदा भगवान्का दर्शन करते रहते हैं। कृपया मुझे भी उनके दर्शनका उपाय बताइये ' ॥ ५०-५३॥
यों कहकर प्रह्लादजी समुद्रके चरणोंपर गिर पड़े। तब समुद्रने उनको शीघ्र ही उठाकर कहा- 'योगीन्द्र ! आप तो सदा ही अपने हृदयमें भगवान्का दर्शन करते हैं; तथापि यदि इन नेत्रोंसे भी देखना चाहते हैं तो उन भक्तवत्सल भगवान्का स्तवन कीजिये।' यों कहकर समुद्रदेव अपने जलमें प्रविष्ट हो गये ॥ ५४-५५॥
समुद्रके चले जानेपर दैत्यनन्दन प्रह्लादजी रात्रिमें वहाँ अकेले ही रहकर भगवान्के दर्शनको एक असम्भव कार्य मानते हुए भक्तिपूर्वक श्रीहरिकी स्तुति करने लगे ॥ ५६ ॥
प्रह्लादजी बोले- धीर पुरुष जिनके दर्शनकी योग्यता प्राप्त करनेके लिये सदा ही सैकड़ों वेदान्त-वाक्यरूप वायुद्वारा अत्यन्त बढ़ी हुई वैराग्यरूप अग्निकी ज्वालासे अपने चित्तको तपाकर भलीभाँति शुद्ध किया करते हैं, वे भगवान् विष्णु, भला, मेरे दृष्टिपथमें कैसे आ सकते हैं। एकके ऊपर एकके क्रमसे ऊपर-ऊपर जिनका आवरण पड़ा हुआ है-ऐसे मात्सर्य, क्रोध, काम, लोभ, मोह, मद आदि छः सुदृढ़ बन्धनोंसे भलीभाँति बँधा हुआ मेरा मन अंधा (विवेकशून्य) हो रहा है। कहाँ भगवान् श्रीहरि और कहाँ में! भय उपस्थित होनेपर उसकी शान्तिके लिये क्षीरसागरके तटपर जाकर ब्रह्मादि देवता उत्तम रीतिसे स्तवन करते हुए किसी प्रकार जिनका दर्शन कर पाते हैं, उन्हीं भगवान्के दर्शनकी मुझ जैसा दैत्य आशा करे-यह कैसा आश्चर्य है !
राजन् ! इस प्रकार अपनेको भगवान्का दर्शन पानेके योग्य न मानते हुए प्रह्लादजी उनकी अप्राप्तिके दुःखसे कातर हो उठे। उनका चित्त उद्वेग और अनुतापके समुद्रमें डूब गया। वे नेत्रोंसे आँसुओंकी धारा बहाते हुए मूच्छित होकर गिर पड़े। भूप! फिर तो क्षणभरमें ही भक्तजनोंके एकमात्र प्रियतम सर्वव्यापी कृपानिधान भगवान् विष्णु सुन्दर चतुर्भुज रूप धारणकर दुःखी प्रह्लादको अमृतके समान सुखद स्पर्शवाली अपनी भुजाओंसे उठाकर गोदमें लगाते हुए वहाँ प्रकट हो गये ॥ ६०-६१ ॥
उनके अङ्गस्पर्शसे होशमें आनेपर प्रह्लादने सहसा नेत्र खोलकर भगवान्को देखा। उनका मुख प्रसन्न था। नेत्र कमलके समान सुन्दर और विशाल थे। भुजाएँ बड़ी-बड़ी थीं और शरीर यमुनाजलके समान श्याम था। वे परम तेजस्वी और अपरिमित ऐश्वर्यशाली थे। गदा, शङ्ख, चक्र और पद्म आदि सुन्दर चिह्नोंसे पहचाने जा रहे थे। इस प्रकार अपनेको अङ्कमें लगाये हुए भगवान्को खड़ा देख प्रह्लाद भय, विस्मय और हर्षसे काँप उठे, वे इस घटनाको स्वप्न ही समझते हुए सोचने लगे- 'अहा ! स्वप्नमें भी मुझे पूर्णकाम भगवान्का दर्शन तो मिल गया!' यह सोचकर उनका चित्त हर्षके महासागरमें गोता लगाने लगा और वे पुनः स्वरूपानन्दमयी मूर्च्छाको प्राप्त हो गये। तब अपने भक्तोंके एकमात्र बन्धु भगवान् पृथ्वीपर ही बैठ गये और पाणिपल्लवसे धीरे-धीरे उन्हें हिलाने लगे। स्नेहमयी माताकी भाँति प्रह्लादके गात्रका स्पर्श करते हुए उन्हें बार-बार छातीसे लगाने लगे ॥ ६२-६५ ॥
कुछ देरके बाद प्रह्लादने भगवान्के सामने आँखें खोलकर विस्मितचित्तसे उन जगदीश्वरको देखा। फिर बहुत देरके बाद अपनेको भगवान् लक्ष्मीपतिकी गोदमें सोया हुआ अनुभवकर वे भय और आवेगसे युक्त हो सहसा उठ गये तथा 'भगवन् ! प्रसन्न होइये' यों बार-बार कहते हुए उन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम करनेके लिये पृथ्वीपर गिर पड़े। बहुज्ञ होनेपर भी उन्हें उस समय घबराहटके कारण अन्य स्तुतिवाक्योंका स्मरण न हुआ। तब गदा, शङ्ख और चक्र धारण करनेवाले दयानिधि भगवान्ने प्रह्लादको अपने भक्तभयहारी हाथसे पकड़कर खड़ा किया। भगवान्के कर-कमलोंका स्पर्श होनेसे अत्यन्त आनन्दके आँसू बहाते और काँपते हुए प्रह्लादको और अधिक आनन्द देनेके | लिये प्रभुने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा ॥
'वत्स! मेरे प्रति गौरव बुद्धिसे होनेवाले इस भय और घबराहटको त्याग दो। मेरे भक्तोंमें तुम्हारे समान कोई भी मुझे प्रिय नहीं है, तुम स्वाधीनप्रणयी हो जाओ [अर्थात् यह समझो कि तुम्हारा प्रेमी मैं तुम्हारे वशमें हूँ। मैं नित्य पूर्णकाम हूँ, तथापि भक्तोंकी समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेके लिये मेरे अनेक अवतार हुआ करते हैं; अतः तुम भी बताओ, तुम्हें कौन-सी वस्तु प्रिय है?' ॥
#narsingh #puran #pralad #ji
@sanatanarahasya
548
17:01
10.08.2025
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छोटी पीपर मिश्रित घी में मधु मिलाकर मुख में धारण करने से दन्तवेदना दूर होती है।
#teeth #aayurveda #ravan #samhita
@sanatanarahasya
515
16:46
11.08.2025
सूर्य की 12 कलाएँ (द्वादश कला) भी वैदिक और पुराणिक ग्रंथों में वर्णित हैं।
ये कलाएँ सूर्य के बारह रूप मानी जाती हैं, जो साल के 12 मास और 12 राशियों से भी जुड़ी हैं।
हर कला एक विशिष्ट ऊर्जा, गुण और प्रभाव रखती है।
सूर्य की 12 कलाएँ
(संस्कृत नाम + संक्षिप्त अर्थ)
1. Tapini (तापिनी) – ऊष्मा और जीवन देने वाली शक्ति
2. Tapini-ā (तापिनीआ) – तप और बल को बनाए रखने वाली
3. Dhūmrā (धूम्रा) – धुँधलापन, मेघ और वर्षा से जुड़ी
4. Marīci (मरीचि) – किरणों का स्रोत
5. Sphaṭikā (स्फटिका) – निर्मलता और पारदर्शिता
6. Sudarśanā (सुदर्शन) – शुभ दृष्टि और स्पष्टता
7. Kha (ख) – आकाशीय विस्तार की शक्ति
8. Viśvakarmā (विश्वकर्मा) – सृजन और निर्माण की ऊर्जा
9. Viśva-rūpā (विश्व-रूपा) – समस्त रूपों में व्यापी
10. Sāmā (सामा) – संतुलन और समरसता
11. Sarvātmā (सर्वात्मा) – सबके आत्मा में स्थित
12. Vyāpinī (व्यापिनी) – सर्वत्र व्याप्त रहने वाली
महत्व
* ये 12 कलाएँ सूर्य के द्वादश आदित्य (मासिक रूप) से जुड़ी हैं — जैसे मित्र, रवि, सविता, भानु, पूषा, अर्क, आदि।
* वैदिक ज्योतिष में इन्हें 12 राशियों और सूर्य के वार्षिक चक्र से जोड़ा गया है।
* योग में ये 12 कलाएँ प्राण-ऊर्जा के 12 मुख्य प्रवाह मानी जाती हैं, जो साल भर अलग-अलग समय पर प्रबल होती हैं।
#kala #mantra #tantra #dhyan #dharna
@sanatanarahasya
524
16:21
12.08.2025
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जिस प्रकार सूत्र मे मणिर्यां गंथी रहती है । उसी प्रकार इस (= प्रणव) ने समस्त विश्च को बान्ध रखा है। इस प्रणव से सात करोड़ अधिकारी मन्त्र उत्पन्न हुए हैं । (उपर्युक्त सम्पूर्ण वर्णन मे लघु मृत्युञ्जयमन्त्र के प्रथम वर्ण "ॐ ' की व्याख्या की गयी है) ॥ २२ ॥
#netra #tantra
@sanatanarahasya
586
07:19
30.07.2025
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झूलना
पंचमुख-छमुख-भृगुमुख्य सर्व-सरि-समर भट-असुर-सुर, समरत्थ सूरो। बेद बंदी बाँकुरो बीर बिरुदैत्त बिरुदावली, बदत
पैजपूरो ।।
जासु गुनगाथ रघुनाथ कह, जासु बल, बिपुल-जल-भरित जग-जलधि झूरो।
दुवन-दल-दमनको कौन तुलसीस है पवनको पूत रजपूत रूरो ॥ ३ ॥
भावार्थ-शिव, स्वामिकार्तिक, परशुराम, दैत्य और देवतावृन्द सबके युद्धरूपी नदीसे पार जानेमें योग्य योद्धा हैं। वेदरूपी वन्दीजन कहते हैं-आप पूरी प्रतिज्ञावाले चतुर योद्धा, बड़े कीर्तिमान् और यशस्वी हैं। जिनके गुणोंकी कथाको रघुनाथजीने श्रीमुखसे कहा तथा जिनके अतिशय पराक्रमसे अपार जलसे भरा हुआ संसार-समुद्र सूख गया। तुलसीके स्वामी सुन्दर राजपूत (पवनकुमार) के बिना राक्षसोंके दलका नाश करनेवाला दूसरा कौन है? (कोई नहीं) ॥
#hanuman #ji #hanuman #bahuk
@sanatanarahasya
700
17:25
28.07.2025
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कबीर आप ठगाइए, और न ठगिए कोय।आप ठगे सुख ऊपजै, और ठगे दुख होय ॥
कबीर कहते हैं कि आप स्वयं ठग जाएँ तो कोई अहित नहीं, लेकिन औरों को न ठगें। भविष्य में इससे आपको सुख मिलेगा; लेकिन औरों को ठगने पर आपको इसके गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए।
#kabir #guru
@sanatanarahasya
700
06:36
26.07.2025
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अगर मैं मरा तो मेरी मौत का जिम्मेदार सीर्फ यही हैं।
460
17:05
13.08.2025
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